क्या
जिस तरह तुम हमे याद आते हो ,
मैं उस तरह तुम्हे याद आता हूँ ??
बुझे जब भी शाम-ऐ- महफ़िल की शमा,
क्या मैं तुम्हे दिख जाता हूँ?
देखा है हमने तुम्हे हथेलियों को चाँद बना
घूंट घूंट कर पानी पीते,
नज़रें जब उठती है तुम्हारी तो ,
मैं प्यासा क्यों रह जाता हूँ,
छत पर आते ही तुम चाँद को दिख जाते हो ,
एक नज़र देख उसे तुम धीमे से मुस्कुराते हो,
क्या मैं तुम्हे चाँद में दिख जाता हूँ,
क्या
जिस तरह तुम हमे याद आते हो ,
मैं उस तरह तुम्हे याद आता हूँ ??
कल जब अमावस में भी दिखता था मेरा चाँद,
रोशन हुआ करता था सिर्फ मेरा आशियाँ,
आज जब आसमा पर टिका है रात भर चाँद
मैं अमावस के तरफ क्यों भाग जाता हूँ,
क्या
जिस तरह तुम हमे याद आते हो ,
मैं उस तरह तुम्हे याद आता हूँ ??
कितने पैगाम लिख कर थे छोड़े,
कितने आसुओं को थे पलकों से निचोड़े,
दिल है फिर भी खामोश,
आंखें जब की अश्कों से भर लेता हूँ,
सुना है हमने तुम होने वाले हो किसी के,
किसी के अरमानो और ख्वाहिसों को दफ़न करके,
आह निकलती है जुबां से,
जब तेरी शक्ल किसी के आँखों में पाता हूँ,,
क्या
जिस तरह तुम हमे याद आते हो ,
मैं उस तरह तुम्हे याद आता हूँ ?
© समरजीत सिंह