अदीम हाशमी एक उर्दू के मशहूर शायर थे। आपका जन्म 1 अगस्त 1946 को भारत के फिरोजपुर में हुआ था और इंतक़ाल ३ नवंबर २००१ में हुआ. उनके द्वारा लिखी गई कुछ उल्लेखनीय ग़ज़लें को प्रस्तुत किया है। उनके बेहतरीन कलाम में से एक है ” फासले ऐसे भी होंगे .”
फासले ऐसे भी होंगे कभी सोंचा न था,
सामने बैठा था मेरे और वो पर मेरा न था,
वो खुशबु की तरह फैला था मेरे चार सु
मैं उसे महसूस कर सकता था पर छू सकता न था,
रात भर पिछली सी आहट कान में आती रही,
झाँक कर देखा गली में कोई आया न था,
मैं तेरी सूरत लिए सारे ज़माने में फिरा,
सारी दुनिया में मगर तेरे जैसा कोई न था,
आज मिलने की ख़ुशी में सिर्फ मैं जागेगा नहीं
तेरी आँखों से भी लगता है की तू सोया न था,
ये सभी वीरानियाँ उसके जुदा होने से थी,
आँख धुंधलाई हुई थी शहर धुंधलाया न था,
सैकड़ों तूफ़ान लफ़्ज़ों में दबे थे ज़ेर-ए-लब,
एक पत्थर था ख़ामोशी का जो हटता न था,
याद करके और भी तकलीफ होती थी आदिम
भूल जाने के सिवा और कोई चारा न था,
मस्लहत ने अजनबी हम को बनाया था ‘अदीम ‘
वरना कब एक दूसरे को हमने पहचाना न था,
–अदीम हाशमी
- जेर-ए-लब = धीमी आवाज़
तेरे लिए चले थे हम
तेरे लिए चले थे हम तेरे लिए ठहर गए,
तू ने कहा तो जी उठे तूने कहा तो मर गए,
कट ही गयी जुदाई मगर कब हुआ की मर गए,
तेरे भी दिन गुजर गए मेरे भी दिन गुजर गए,
तू भी कुछ और और है हम भी कुछ और और हैं ,
जाने वो किधर गया जाने वो हम किधर गए,
राहों में ही मिले थे हम राहें नसीब बन गई,
वो भी अपने घर हम भी अपने घर गए ,
वक़्त ही जुदाई का इतना तावील हो गया,
दिल में तेरे विसल के जितने थे ज़ख्म सारे भर गए,
होता रहा मुक़ाबला पानी का और प्यास का,
सहरा उमड़ उमड़ दरिया बिफर बिफर गए,
वो भी गुबार-ए-ख्वाब था हम भी गुबार-ए-ख्वाब थे,
वो भी कहीं बिखर गया हम भी कहीं बिखर गए,
कोई कनार-ए- आबजू बैठा है सर-निगून,
कश्ती किधर चली गई जाने किधर भंवर गए ,
आज भी इंतज़ार का वक़्त हुनुत हो गया,
ऐसा लगा की हश्र तक सारे ही पल ठहर गया,
बारिश-ए-वस्ल वो हुई सारा गुबार धूल गया,
वो भी निखर निखर गया हम भी निखर निखर गए ,
अब-ए-मुहित-ए-इश्क़ का बहर अजीब बहर है,
इतने करीब हो गए अपने रक़ीब हो गए,
वो भी अदीम डर गए हम भी अदीम डर गए,
उस के सुलूक पे अदीम अपनी हयात ओ मौत है,
वो जो मिला तो जी उठे वो जो न मिला तो मर गए,
–अदीम हाशमी
इक खिलौना टूट जायेगा
इक खिलौना टूट जायेगा दूसरा मिल जायेगा,
मैं नहीं तो कोई तुझे दूसरा मिल जायेगा,
भागता हूँ हर तरफ ऐसे हवा के साथ साथ,
जिस तरह सच मुच मुझे उसका पता मिल जायेगा,
किस तरह रोकोगे अश्क़ों को पस-दिवार-ए-चस्म,
ये तो पानी है इसे तो रास्ता मिल जायेगा,
एक दिन तो ख़त्म होगी लफ्ज़-ओ-मानी की तलाश,
एक दिन तो मुझको मेरा खुदा मिल जायेगा,
एक दिन तो अपने झुटे खोल के तोड़ेगा वो,
एक दिन तो उसका दरवाजा खुला मिल जायेगा,
जा रहा हूँ इस यक़ीन से उसको घर छोड़ने सम्त,
जैसे वो बाहर झांकता मिल जायेगा,
छोड़ खली घर को चल बाहर आ ए अदिम,
कुछ नहीं तो कोई चाँद सा चेहरा मिल जायेगा,
तेज़ होती जा रही धड़कनें ऐसे आदिम,
जैसे अगले मोड़ पर वो बेवफा मिल जायेगा,,
-अदिम हाशमी
पस-ए-दिवार-ए-चस्म= आँखों के दीवार के पीछे