Ghalib Ki Gazlen

ग़ालिब की ग़ज़लें

Mirza Ghalib

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत,
कहते हैं ग़ालिब का अंदाज़-ेए-बयां और

मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के सर्वश्रेष्ठ लेखक मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान का काव्यात्मक पारिवारिक नाम है। वह दिल्ली के अतुलनीय लेखकों में से एक थे। आज भी सैकड़ों साल गुजर जाने के बाद भी उनकी शायरी और ग़ज़ल किसी भी मंच को अमीर बना जाती है.

 पारंपरिक फ़ारसी और अध्यात्मवादी सोच में तैयार, उनके ग़ज़लों में हम आज  भी ताजगी पाते हैं। ताज्जुब की बात है की ऐसे कला के धनी वो सैकड़ों साल पहले थे जो की उस वक़्त के लिए ये अकल्पनीय थी। 

ग़ालिब जैसा कोई नहीं।  निश्चय ही यह बहुत ही सही कथन है।  भारत में उर्दू माशिकी,  ग़ालिब से शुरू ग़ालिब पर ही ख़तम  होती है।  ऐसा मानना ग़ज़लों के शौकीनों का है , और सही भी है।  

ग़ालिब की ग़ज़लें से शब्दों में प्राण फूंकने का एक प्रयास।

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक

(Aah Ko Chahiye Ek Umra Asar Hone Tak)

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक 

कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ़ केसर होने तक,

आशिकी यूँ सब्र तालाब और तमन्ना बेताब,

दिल का क्या रंग करूँ खून-ए-जिगर होने तक,

हमने माना की तगाफुल न करोगे लेकिन,

ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक,

गम-ए-हस्ती का असद किस से हो जुज मल्द-ए-इलाज़ 

शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक,

पर्तव -ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम ,

मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक,

ता क़यामत शब्-ए-फ़ुर्क़त में गुजर जायेगी उम्र 

सात दिन हम पे भी भारी है सहर होने तक,

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक 

कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ़ केसर होने तक..

-मिर्ज़ा ग़ालिब (स्त्रोत – दीवान-ए-ग़ालिब)


दिल-ए -नादान तुझे हुआ क्या है

dil-e-nadaan tujhe hua kya hai

दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है,

आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है,

हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार,

या इलाही ये माज़रा क्या है,

मैं भी मुंह में ज़ुबान रखता हूँ,

काश पूछो की मुद्दा क्या है,

जब की तुझ बिन नहीं कोई मौजूद,

फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है,

ये परी-चेहरा  लोग कैसे हैं,

हम्ज़ा-ओ-ईश्वा ओ अदा  क्या है,

शिकन-ऐ-ज़ुल्फ़-ऐ-अम्बरीं सा क्यूँ है,

निगाह-ऐ-चस्म-ऐ-शूरमा क्या है,

सब्ज़-ओ-गुल कहाँ से आए हैं,

अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है,

हम को है उनसे वफ़ा की उम्मीद,

जो नहीं जानते हैं वफ़ा क्या है,

हाँ भला कर तेरा भला होगा,

और दरवेश की सदा क्या होगा,

जान तुम पर निशार करता हूँ,

मैं नहीं जानता हूँ दुआ क्या है,

मैंने माना की कुछ नहीं ग़ालिब,

मुफ्त हाथ आये तो बुरा क्या है,

-मिर्ज़ा ग़ालिब (स्त्रोत – दीवान-ए-ग़ालिब)


खामोशियों में तमाशा अदा निकलती है

Khamoshiyon mein tamasha ada nikalti hai

खामोशियों में तमाशा अदा निकलती है,

निगाह दिल से तेरा सुर्मा सा निकलती है,

फ़शार-ए-तंगी-ए-ख़लवत से  बनती है शबनम ,

सबा जो गुंचे के परदे में जा निकलती है,

न पूछ सीना-ए-आशिक़ से आब-ए-तेग-ए-निगाह, 

की ज़ख्म-ए-रोजन-ए-दर से हवा निकलती है,

ब रंग-ए-शीशा यक-गोश-ए-दिल-खाली,

कभी पारी मेरी ख़ल्वत में आ निकलती है..

-मिर्ज़ा ग़ालिब (स्त्रोत – कलाम-ए-ग़ालिब)

  • फ़शार-ए-तंगी-ए-ख़लवत = दरार युक्त तन्हाई
  • आब-ए-तेग-ए-निगाह = तलवार की तेज चमक जैसा
  • ज़ख्म-ए-रोजन-ए-दर = दरवाजे के झरोखे के ज़ख्म
  • यक-गोश-ए-दिल-खाली = खाली दिल का एक कोना


हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी  Hazaaron Khwahishen Aisi

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पर दम  निकले,

बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले,

डरें  क्यों मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर,

वो खून जो चस्म-ए-तर से उम्र भर दम ब दम निकले,

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन,

बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले,

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे दराज़ी का ,

अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले,

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये,

हुई सुबह और घर से कान पर रख कर कलम निकले,

हुई इस दौर में मंसूब मुझसे बादा आशामी ,

फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए- जम निकले,

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पर दम निकले,

कहाँ मैखाने का दरवाजा ग़ालिब और कहाँ वाइ’ज़ ,

पर इतना जानते हैं  कल वो जाता था की हम निकले,

-मिर्ज़ा ग़ालिब

बादा-आशामी = शराब पीना 

तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म = पगड़ी की गाँठे और उनमे लगे पंख 

दराज़ी = लम्बाई या ऊंचाई,

जाम-ए-जम  = जादुई पानपत्र

चश्म-ए-तर = आंसू से भरी हुई आँखें  

पेच-ओ-ख़म = उतार चढ़ाव, घुमावदार , मोड़

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