कुछ तो हवा भी सर्द थी

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कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख्याल भी,

दिल को ख़ुशी के साथ साथ था थोड़ा मलाल भी

बात वो आधी रात की रात वो पुरे चाँद की,

चाँद भी ऐन चैत  का उसपे तेरा जमाल भी

सबक से नज़र बचाकर वो मुझे ऐसे था देखता,

एक दफा तो रुक गयी गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी,

दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश कर देख लें,

शीशा -गिरन-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी, 

उसको न पा सके थे जब का अजीब हाल था,

अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी,

मेरी तालब था एक शक़्स वो जो नहीं मिला तो फिर,

हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी,

उसकी सुखन-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं 

उसकी हंसी में छुप गया मेरे ग़मों का हाल भी,

गाह क़रीब-ए- शाह रग गाह बईद -ओ-वहम-ओ-ख़्वाब,

उसकी रफ़ाक़तों में था हिज़्र भी विसाल भी,

उस के ही बाज़ुओं में और उसको सोंचते रहे,

जिस्म की ख्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी,

शाम की ना समझ हवा पूछ रही है एक पता,

मौज़-ए-हवा-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख्याल भी..   

परवीन शाक़िर

*शीशा-गिरन-ए-शहर= शीश कामगारों का शहर

*सुख़न-तराज़ियाँ= बातों की शैली 

*बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब= ख्यालों के पार

*मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार= हवा के खुशबु प्रेमी के गली से

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